Friday, 11 May 2018

कॉलेज का वो अपना सा ग्रुप



कॉलेज का वो पहला दिन
दिल में थी अजब सी धक धक
एक धक थी जो कहती ज़िन्दगी का नया अध्याय हुआ हैं शुरू,
एक धक थी जो कहती सम्भल के रहना बंधु पहले दिन ही हो ना जाए कोई स्यप्पा शुरू,

मेट्रो में बैठे इसी खयालात में ना जाने कब गोविंदपुरी स्टेशन से मैं आगे निकल गया,
उतारना था जहां वो स्टेेेशन था काफ़ी पीछे रह गया,

कॉलेज में पहुंचा तो समझ ना आए, कहा जाऊ किस्से  पुछू,
कुछ देर आगे चला तो एक आवाज़ सुनाई दी वो भी किसी से कह रहा कि कहा जाऊ किस्से पुछू,
नजाने क्यों मुझे ये सुनकर अच्छा लगा शायद इस अनजाने भीड़ में एक साथी था मिल गया,
जैसे तैसे क्लास पता करी और वहा जाके चुप चाप एक से ठीक पीछे दूसरी बेंच पर बैठ गया,

मेरी जैसी हालत लिए ठीक मेरे पीछे एक और लड़का बैठ गया,
और पल दो पल लगे नहीं कि वो भी मेरा दोस्त बन गया ,

कुछ दिनों में हुई प्रोफेसर्स से भी मुलाक़ात
जिन्होंने करवाई हमारी हिन्दी के गजब के ऐतिहासिक साहित्य  से मुलाक़ात,
जिसे देख के ना जाने क्यों दिमाग बोल रहा था प्यारे बंधु अब तो लगने वाली है एक दम अच्छे से तेरी वाट,

यूंही कहीं नज़र एक लड़की पर पड़ी
मैं उसके पीछे और वो मेरे आगे थी खड़ी,
जिसके बालों को देख कर मैं बोला
वाह! क्या लड़की है...

जब उसने खुद को पलटा
और तब मन मुझसे उलझा,
और मुंह से ना जाने क्यों ये निकला
अबे यार!  ये कैसी सी लड़की है..

ऐसा कई मर्तबा हुआ
हर बार पसंद किसी के बाल आते
हर बार फ़िर वो खुद पलट कर करती बाते,
मैं हर बार हस कर खुद से कहता कि ..
अबे यार! ये तो फ़िर वही लड़की है..

बहरहाल समय के साथ साथ बाते हुई
बातो की शुरुआत में ही हम दोनों को पता चला
डैट वी बोथ आर फ्रोम बिहार,
उस वक़्त लगा था कि ये लड़की खुद में ही पहेली है
पर आज खुश हूं कि वो मेरी सबसे अच्छी सहेली है।

सहेली के साथ मिली मुफ्त में एक और सहेली है
उसको बुलाते सब शीतल है और लगती वो मुझको भी ज़रा सी ठंडी है,
कॉलेज की क्लास ख़तम हुुई नहीं सभी कि
 घर चलो-  घर चलो बोलने वाली वो लगती एक अलार्म वाली गंटी है, 😒

जिस तरह से रोज़ सुबह पक्के समय पर उदय होता है वो आसमान वाला रवि,
ठीक उसी तरह का एक लड़का रोज़ लेट आता , कुकुर! बहुत बार तो आता ही नहीं
ना जाने फिर  भी क्यों उसका नाम था रवि?

लेट से आया याद ..दुनिया खूब कहती है कि लड़कियां खूब देरी करती है
जिस दिन बना हो प्लान सैर सपाटे का उस दिन तो और हद पार देरी करती है,
नाम ना लूंगा किसी का भी मैं
पर ऐसा ही कुछ हाल मेरे कुछ प्यारी सी सहेलियो का  था,
जिनके नाम का मतलब चुप्पी और बहुरंगी  सा था
जिनमे से एक न जाने देखते ही देखते कब दोस्त बनी,
और एक ने फ्रेशर पार्टी में से सीधा अपनी गैंग में एंट्री ले मचाँई सन सनी,

ऊपर जो दोस्त मेरी जैसी हालत लिए ठीक मेरे ही पीछे  बैठा था एक ब्रो
आज चार साल बाद भी मुझसे बोलता है इस क्वेशचन का आंसर क्या है? ..ब्रो ,
किसी लड़की के सामने वट बढ़े इसलिए नाम बताता है अपना स्काई
अपने फ़ोन में तो आज भी नाम उसका हैं गंगू , कुछ भी करले ये नाम न बदलेगा भाई,


पर मंज़र वो भी सुहाना था जब साथ हुआ करते हम सारे थे ,
वो गर्म चाय के प्याले और  चुरा के खाए कुछ निवाले भी तो लगते बड़े प्यारे थे,
खुशी के मौके पर था डोमिनोज़ का वो अड्डा हमारा,
और घूमने को था पूरा दिल्ली हमारा,

पाजी के वो राजमा चावल और मोमोज़ वाले के मोमोज़ से था दिल को बड़ा लगाव,
ठंडी सी दोस्त के लिए स्पायसी कम ग्रेवी ज़्यादा वाली चिल्ली पोटेटो का भी तो कम न होता था भाव,

देखे जाते हुए कॉलेज और भी कुछ स्टाइलिश बस्ते,
तो याद कर के कल को दिल ही दिल में हम भी हसते,
ये दुनिया कमिनी सपने अपने सस्ते,
याद कर ये हम खुद से खुुद को कहते,

यार!  वो कॉलेज के दिन भी क्या मस्त थे।

                                         __✍️शुभम शाह














3 comments: