मेरा कुछ सामान ज़िन्दगी तुम्हारे पास पड़ा है
वो बचपन की मीठे दिन जहां मैं खुश रहा करता था,
ना नौकरी की चिंता ना कोई सर पर प्रेशर बस वो स्कूल का बस्ता ही प्यारा लगता था,
नब्बे के दशक में जिया हूं मैं जब हम क्रिकेट के शतक से दूर और सन् २००० शतक के बहुत करीब हुआ करता था,
जहां संडे के दिन अब संडे जैसे लगते ही नहीं वहीं संडे को खास संडे बनाने लिए हमारा प्यारा शक्तिमान आया करता था,
टेलीफोन! याद है मुझे आज भी जब गांव से कोई फोन हमारे लिए आता था तो घंटी हमारे घर नहीं पड़ोसी के घर की बजती थीं ,😂😂😂
वो ठंडे रसना की चुस्कियां कुछ ,जिसे पीकर हो जाती थी हमारी जीभ सतरंगी सी,
जब बड़े होकर बनना था स्पेस हीरो ताकि कारनामे कर सके लाईक ए कैप्टन व्योम सा कुछ, ऐसी ही तो ज़िन्दगी थी हमारी कुछ अतरंगी सी,
स्कूल के बस्ते में छुपी थी खुशियां सारी
याद आते है आज भी वो दिन जब नए क्लास में जाने से पहले कॉपियां पर चढ़ाते थे वो भुरा सा कवर ,
और चिपकाते थे उसपर एक सुंदर सा नाम लिखने वाला स्टीकर,
होमवर्क करने पर आती थी याद नानी सबको,
और होमवर्क कॉपी को चैक करवाते समय सबसे उपर रखने में डर भी लगता है था सबको,
क्या याद है आपको जब हम प्रिंसेस के लिए सुपर मारियो बन ड्रैगन से भी लड़ जाते थे,
पर अगर बेसन का लड्डू ना मिले तो मुंह फूला कर बैठ जाते थे,
ज़माना आज भी वही अच्छा लगता है जहां अच्छी खबरें व्हाट्सएप पर नहीं साइकिल पर सवार पोस्ट मैन अंकल लाते थे,
टीवी भी तो खूब मज़े दिलाता था,भले ही देखने के लिए डी डी नेशनल और डी डी मेट्रो थे,
पर उसी में हम अपनी दुनिया ढूंढ़ लिया करते थे,
और उसी में खूब मज़ा आता था,
कहानियां जो हमे सीख देती थी वो नैतिक शिक्षा की किताब नहीं ,
बल्कि टीवी पर आने वाला मालगुडी डेज़ और टिंबा रूचा की कहानियां दिया करते थे,
याद हैं वो त्योहारों के दिन
जब होली के पकवान को बनते देखना भी अच्छा लगता था,
और वो ईद की छुट्टी भी अच्छी लगती थी,
दीवाली पर बिजली बम फोड़ना भी अच्छा लगता था,
और क्रिसमस की वो पेस्ट्री भी अच्छी लगती थी,
ए ज़िन्दगी मेरा यही सामान तुम्हारे पास पड़ा है
मुझको मेरी यही यादें वहीं दिन वहीं मस्तिया वहीं दोस्त वहीं बेफ़िक्री वहीं मौजे वापस लौटा दो,
मेरा कुछ सामान ज़िन्दगी तुम्हारे पास पड़ा है।
__✍️शुभम शाह
वो बचपन की मीठे दिन जहां मैं खुश रहा करता था,
ना नौकरी की चिंता ना कोई सर पर प्रेशर बस वो स्कूल का बस्ता ही प्यारा लगता था,
नब्बे के दशक में जिया हूं मैं जब हम क्रिकेट के शतक से दूर और सन् २००० शतक के बहुत करीब हुआ करता था,
जहां संडे के दिन अब संडे जैसे लगते ही नहीं वहीं संडे को खास संडे बनाने लिए हमारा प्यारा शक्तिमान आया करता था,
टेलीफोन! याद है मुझे आज भी जब गांव से कोई फोन हमारे लिए आता था तो घंटी हमारे घर नहीं पड़ोसी के घर की बजती थीं ,😂😂😂
वो ठंडे रसना की चुस्कियां कुछ ,जिसे पीकर हो जाती थी हमारी जीभ सतरंगी सी,
जब बड़े होकर बनना था स्पेस हीरो ताकि कारनामे कर सके लाईक ए कैप्टन व्योम सा कुछ, ऐसी ही तो ज़िन्दगी थी हमारी कुछ अतरंगी सी,
स्कूल के बस्ते में छुपी थी खुशियां सारी
याद आते है आज भी वो दिन जब नए क्लास में जाने से पहले कॉपियां पर चढ़ाते थे वो भुरा सा कवर ,
और चिपकाते थे उसपर एक सुंदर सा नाम लिखने वाला स्टीकर,
होमवर्क करने पर आती थी याद नानी सबको,
और होमवर्क कॉपी को चैक करवाते समय सबसे उपर रखने में डर भी लगता है था सबको,
क्या याद है आपको जब हम प्रिंसेस के लिए सुपर मारियो बन ड्रैगन से भी लड़ जाते थे,
पर अगर बेसन का लड्डू ना मिले तो मुंह फूला कर बैठ जाते थे,
ज़माना आज भी वही अच्छा लगता है जहां अच्छी खबरें व्हाट्सएप पर नहीं साइकिल पर सवार पोस्ट मैन अंकल लाते थे,
टीवी भी तो खूब मज़े दिलाता था,भले ही देखने के लिए डी डी नेशनल और डी डी मेट्रो थे,
पर उसी में हम अपनी दुनिया ढूंढ़ लिया करते थे,
और उसी में खूब मज़ा आता था,
कहानियां जो हमे सीख देती थी वो नैतिक शिक्षा की किताब नहीं ,
बल्कि टीवी पर आने वाला मालगुडी डेज़ और टिंबा रूचा की कहानियां दिया करते थे,
याद हैं वो त्योहारों के दिन
जब होली के पकवान को बनते देखना भी अच्छा लगता था,
और वो ईद की छुट्टी भी अच्छी लगती थी,
दीवाली पर बिजली बम फोड़ना भी अच्छा लगता था,
और क्रिसमस की वो पेस्ट्री भी अच्छी लगती थी,
ए ज़िन्दगी मेरा यही सामान तुम्हारे पास पड़ा है
मुझको मेरी यही यादें वहीं दिन वहीं मस्तिया वहीं दोस्त वहीं बेफ़िक्री वहीं मौजे वापस लौटा दो,
मेरा कुछ सामान ज़िन्दगी तुम्हारे पास पड़ा है।
__✍️शुभम शाह

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