Friday, 28 September 2018

मज़हब - एक ज़हर




मज़हब का काश एक प्यारा सा मज़हब होता,
जहां का कोई पाशिंदा कभी ना  रोया होता,

मज़हब लफ्ज़ लेने से रूह से ये मुसलमान वाला बंधू होगा,
गर जो कहूं धर्म हैं मेरा तो... अरे नहीं नहीं ये मुसलमान नहीं ये तो हिन्दू होगा।

लफ़्ज़ों में और भाषा में लोग अब धर्म ढूंढ़ लेते हैं,
नाम के पीछे क्या नाम है... उस नाम में लोग खुदा ढूंढ़ लेते हैं।

माथा तूने गुरु के पास भी है टेका, सजदा सर तेरा उस खुदा के पास भी हुआ होगा,
तो सोचता हूं मैं ये.. तू उस अल्लाह के बंदे को मार क्यों अंदर से खुश हुआ होगा।

मोहब्बत की नज़्म ना लिख ,लिख डाले धर्म के नारे कई,
अमन का ना पैग़ाम  फ़रमा, बजा डाले खौफ़ के नगाड़े कई।

इश्क़ में दिल को तुड़वाया गया, वो खुद ना था टूटा... उसे क‌ई बार था सताया गया,
इश्क़ में वो सिर्फ़ इंसाँ थे, कौम से ना था वास्ता,  इसलिए मज़हब को वहां था फ़िर से लाया गया।

बेवफ़ा बना एक शक्स को दूसरे को बना कातिल उन्होंने खुद नहीं... उनसे गुनाह करवाया गया,
एक से बेवफ़ाई तो दूसरे से  मोहब्बत का कत्ल चुपके से था करवाया गया।

और मोहब्बत को, उस अमन को, उस नाम को उस दोस्ती को, उस महसूस को,
धर्म कहूं या मज़हब इसी नाम के ज़हर से इनका खून करवाया गया।
                     
                                                                                 __✍️शुभम शाह

1 comment:

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