Sunday, 9 June 2019

आए तो सहीं।





खुद से तेरी बातें  करते हुए,
खुद से ही तेरी तारीफे करते हुए,
अब हम सोने लगे  हैं यूहीं,
बातें वो बीती वाली उनसे ही करने के लिए
ढूंढ़ती है ये भींगी आंखे उन्हें,
पर वो कमबख्त तो मिले सहीं।

हर बहाव की तरह,
एक ठहराव भी हैं ज़रूरी,
पर  उनके बिना ये ठहराव चाहिए नहीं,
अरसा सा हो गया है...हाँ अरसा हो गया है
उस ठहराव को आए हुए,
पर कमबख्त वो सही वक़्त तो आए सहीं।

इश्क़ की बारिश के भी रसूख अलग हैं,
कभी परवानों को ये गई भींगा
तो कभी सौंधी सी महक दे गई कहीं,
महक से तो रिश्ता अपना सा हैं,
पर उन बारिश के छींटों की
मेहरबानियां हमें भी तो मिले सहीं।
                                        ___✍️शुभम शाह












Friday, 28 September 2018

मज़हब - एक ज़हर




मज़हब का काश एक प्यारा सा मज़हब होता,
जहां का कोई पाशिंदा कभी ना  रोया होता,

मज़हब लफ्ज़ लेने से रूह से ये मुसलमान वाला बंधू होगा,
गर जो कहूं धर्म हैं मेरा तो... अरे नहीं नहीं ये मुसलमान नहीं ये तो हिन्दू होगा।

लफ़्ज़ों में और भाषा में लोग अब धर्म ढूंढ़ लेते हैं,
नाम के पीछे क्या नाम है... उस नाम में लोग खुदा ढूंढ़ लेते हैं।

माथा तूने गुरु के पास भी है टेका, सजदा सर तेरा उस खुदा के पास भी हुआ होगा,
तो सोचता हूं मैं ये.. तू उस अल्लाह के बंदे को मार क्यों अंदर से खुश हुआ होगा।

मोहब्बत की नज़्म ना लिख ,लिख डाले धर्म के नारे कई,
अमन का ना पैग़ाम  फ़रमा, बजा डाले खौफ़ के नगाड़े कई।

इश्क़ में दिल को तुड़वाया गया, वो खुद ना था टूटा... उसे क‌ई बार था सताया गया,
इश्क़ में वो सिर्फ़ इंसाँ थे, कौम से ना था वास्ता,  इसलिए मज़हब को वहां था फ़िर से लाया गया।

बेवफ़ा बना एक शक्स को दूसरे को बना कातिल उन्होंने खुद नहीं... उनसे गुनाह करवाया गया,
एक से बेवफ़ाई तो दूसरे से  मोहब्बत का कत्ल चुपके से था करवाया गया।

और मोहब्बत को, उस अमन को, उस नाम को उस दोस्ती को, उस महसूस को,
धर्म कहूं या मज़हब इसी नाम के ज़हर से इनका खून करवाया गया।
                     
                                                                                 __✍️शुभम शाह

Saturday, 8 September 2018

मेरे पास किस्सों की कतार हैं।





मैं राही हूंँ उस पथ का
जिसपर मिलते चेहरे हज़ार हैं,
हर चेहरे की एक कहानी है,
उस एक कहानी में ही किस्सों की भरमार हैं,
फ़ुरसत से बैठोगे मेरे संग? मेरे पास किस्सों की कतार हैं।

किस्सो में हर तरह के किरदार से मिलाया करूंगा,
जिसमे खुला हुआ वो नीले रंग का आसमान होगा पर मैं बात उन तारों से घिरी रात की किया करूंगा,
जिसमें लड़के की लड़की से मुलाकात हुई थी ऐसे ही कई मुलाकातों की मैं बात किया करूंगा,
कभी चलना मेरे साथ, मैं किस्से सुनाया करूंगा।

दोस्ती का मतलब तुम्हें पता ज़रूर होगा पर दोस्ती के मायने क्या हैं तुम्हें आज ये बतलाऊंगा,
चाय की चुस्की, चुराए निवाले और दो हसीं के बोल में ही कहीं एक दर्द दब सा जाता हैं,तुम थोड़ा सब्र रखना मेरे किस्सों में मैं उन दर्द से भी तुम्हें मिलवाऊंगा,
तुम आज अपने दिल को मज़बूत रखना मेरे किस्सों में मैं आज तुम्हें तुमसे ही मुखातिब करवाऊंगा,
ज़रा चलोगे मेरे संग? मैं आज कुछ किस्से सुनाऊंगा।

तुम उदास मत होना, सिर्फ दर्द से ही नाता नहीं रहा हैं खुशियों से भी मेरा रिश्ता पुराना हैं,
खुशियां भी कुछ रिश्तों में ही मिली हैं जिसमें मां बाप भाई दोस्तों और कुछ अनजान चेहरों का भी अफसाना हैं,
अरे हा.. उस बरसात की रात में उस लड़की ने लड़के से क्या कहा था  वो खुशनुमा किस्सा भी तो सुनाना हैं,
कुछ देर बैठोगे मेरे संग? मुझे एक किस्सा सुनाना हैं।

मैं दर्शक हूंँ उस भीड़ का जिसमे चेहरे हज़ार हैं,
हर चेहरे की एक कहानी है,
उस एक कहानी में ही किस्सों की भरमार हैं,
फ़ुरसत से बैठोगे मेरे संग? मेरे पास किस्सों की लंबी कतार हैं।

                        __✍️शुभम शाह

Monday, 13 August 2018

कुछ हैं नहीं हमारे बीच ?



चलो माना कुछ हैं नहीं हमारे बीच,
पर ऐसा भी नहीं की कुछ हैं नहीं हमारे बीच।

पल दो पल की बाते होगी
चलो एक या शायद  दो मुलाकाते होगी,
सोचकर हुआ ज़रूर था शुरू ये रिश्ता
पर उस पल से आज तक यूहीं नहीं निभ रहा ये रिश्ता।

हाँ शायद ये पूरा खेल दिल की उसी भावना का हैं
जिसने मुझसे ये पूछना मुनासिब न समझा,
और खुद से दिल ने अपना मन बना लिया
कि अब तामाम कामो में से एक काम तुमको चाहना भी है।

भावना तो उधर भी थी
जिसका रूप तो सुलझा सा था,
पर बेचारा खुद में ही उलझा सा था
उलझने का कारण इस बार भी समाज ही था।

समाज ही हैं जो आया है सभी के बीच
और इसी वजह से हर थी एक ने कभी ना कभी कहा है कि कुछ नहीं हैं हमारे बीच,
और कुछ ना रहते हुए भी ऐसा बिल्कुल नहीं हैं की
कुछ हैं नहीं हमारे बीच।

                        __✍️शुभम शाह

Sunday, 5 August 2018

वो छोटा सा सफ़र



यूं तो हज़ारों बार उस गली से गुजर जाना हुआ,
कभी अकेले तो कभी यारो के साथ उसी गली में गुनगुनाना हुआ,
कभी गाते तो कभी मुरझाते तय ये सफ़र का फ़साना हुआ,
यूं तो हसीन सा एहसास पहले भी होता था पर तेरे आने के बाद क्यूं वो सफ़र का एहसास रोमांटिकाना हुआ।

रास्ता ये ना हो खत्म, दिल का ना जाने क्यूं ये भी शुरू चाहना हुआ,
तुम्हें जानते हुए भी, तुम्हें थोड़ा और जानना भी उस सफ़र में ही हुआ,
कुछ तुम्हारा बताना कुछ मेरा सुनाना, या सिर्फ़ तुम्हारा बताना और मेरा उसे ही सुनते जाना भी तो उन्हीं गलियों में ही तो था हुआ,
इससे पहले तो कॉलेज से वो बस स्टैंड तक का सफ़र अचानक न यू आशिकाना  हुआ।

उस सफ़र की यादों के सफ़र में आज फिर से इस दिल का जाना हुआ,
और वो छोटा सा बस स्टैंड तक वाला सफ़र फ़़िर शायाराना हुआ,
और इस नए नए बने शायर का मिजाज़ आज फ़िर आशिकाना हुआ।
         __✍️❤️शुभम शाह

Thursday, 19 July 2018

फ़िर क्यूं?


इश्क़ उनको भी था
इश्क़ इसको भी था,
ज़ुबा पर इज़हार इसके भी था
आंँखों में इकरार उनके भी था।

बेपरवाह हुआ था वो बस उसकी परवाह करने के लिए
बंदिशों को तोड़कर,
फ़िक्र की चादर उसने भी ओढ़ ली थी उस बेपरवाह के लिए
पर  बंदिशों में रहकर,
समानता बस यह हैं कि-
प्यार उनको भी था,
प्यार इसको भी था।

इज़हार था, इकरार था, प्यार वाला तकरार भी था
और प्यार तो था ही,
फ़िक्र भी थी, इबादत भी थी, सजदा भी वो कई बार हुए थे-
सब कुछ तो था ही,

फ़िर क्यूं?
बस इसके ज़ुबां पर इज़हार था
और दिल में इज़हार का घर होते हुए भी
क्यूं? ज़ुबा पर उनके इनकार था....

(शायद ये अभी अधूरी काल्पनिक कहानी हैं)
                           _✍️शुभम शाह



Saturday, 23 June 2018

शहर दिल्ली सवारी मेट्रो



आते जाते अनजान लोग,
लोगो के चेहरों पर कहानी हैं ढेरो,
एक साथ जहां मिलेगी इतनी कहानी
वो रस्ता है मेट्रो,
मेरे शहर का नाम दिल्ली और मेरी सवारी हैं मेट्रो

सीट पर बैठे बैठे,
या मेट्रो की दीवारों से अड़ के,
लोगो के चेहरों पर किस्से पड़े हैं ढेरो,
जनाब के जॉब का हैं इंटरव्यू पहला,
हाथो में हैं पसीना और चेहरे पर हैं शिकंज ढेरो,

मेहबूबा से हैं मिलना,
तो हाथो में हैं तोहफ़ा,
और बालों पर उंगलियों को फेरो,
कानो में लीड,म्यूज़िक हैं ऑफ
बगल वाला क्या करता बाते उधर भी ज़रा कान देलो,

उस बूढ़ी महिला का ऐसक्लेटर का डर,
लिफ़्ट में जाओ तो कुछ बुजुर्गो का दिखता अकड़,
ज्ञान के बाहने कहना बेटा तू अभी है जवान
चल - चल बाहर निकल,

मेट्रो की सीढ़ियों पर,
आजकल भिखारी पर ही नहीं,
प्रेमी जोड़ियों पर भी चली जाती हैं नज़र,
मेट्रो सीट पर बैठो तो साला यहां भी एक आशिक फ़ोन पर ले रहा अपनी बाबू की खबर,

इस मेट्रो लाइफ में,
मेट्रो स्टेशन पर ही हुई पुरानी दोस्तो से आज मुलाकात हैं,
कुछ ने आज भी नज़रे बचाई,
और कुछ ने गले लगा पूछा और भाई क्या बात है?

एक सीट की कीमत तुम क्या जानो
सीट के लिए तो बेटा यहां खून भी बहा है भतेरो,
यहां दिखता है प्यार भी और होती है मस्त तकरार भी
इस शहर का नाम हैं दिल्ली
और इस गाड़ी का नाम है मेट्रो

       __✍️शुभम शाह